आकाश बना है नीरवता से,
संकल्प से बनी है धरती,
नदियाँ इच्छाओं से बनी हैं,
मैं बना हूँ धूल से...
अब मैं चाहूँ भी
तो कितना बचा सकता हूँ ख़ुद को,
उन ज्ञात-अज्ञात सुरंगों से आनेवाले अंधड़ से,
जो मेरी देह को कुछ और मलिन
और आत्माको कुछ और सँकरा बना देता है...
हरेक दिन,
जब यह समय,
अपनी धूसर कमीज़ और थके कंधों पर
रात का लबादा चढ़ा लेता है,
एक स्याह परत के नीचे मैं,
जाने किस चेहरे की याद में सुबकने लगता हूँ...